Tuesday, 6 August 2013

सारे जहां से अच्छा..

सारे जहां से अच्छा..

हम हिंदुस्तानी अपने देश से बहुत प्यार करते है और इसे एक मुकम्मल मुल्क बनाना चाहते हैं। ढेरों शिकायते हैं, इसके बाद भी हम कहते है, सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा। वो कौन सी बाते हैं, जो देश से हमारे प्यार को बढ़ाती हैं और वो कौन सी बातें है, जो हमें नहीं आतीं। आम व खास लोगों के साथ इस पर एक नजर
1. रिश्ते ही रिश्ते
भारत में सबसे ज्यादा प्यारी चीज हैं हमारे रिश्ते। मा-पिता-बच्चे, चाचा-चाची, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-फूफा, मामा-मामी, दीदी-जीजाजी, देवर-भाभी, मौसा-मौसी..रिश्तों की लंबी लिस्ट है हमारे यहा। सिर्फ अंकल-आटी कहने से यहा बात नहीं बनती।
2. हम साथ-साथ हैं
भारतीय परंपरा में अभी भी संयुक्त परिवारों के लिए जगह है। माता-पिता अपने बच्चों ही नहीं, पोते-पोतियों तक की परवरिश करते हैं।
3. जश्न और उत्सवधर्मिता
कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या तारीख है, हमें तो जश्न मनाने का बहाना चाहिए। हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई.. सबके त्योहार मनाते हैं हम।
4. अतिथि देवो भव..
मेहमा जो हमारा होता है- वो जान से प्यारा होता है.., इस गीत का संदर्भ लें तो हम अपने घर ही नहीं, देश में भी आने वाले लोगों की खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते। आखिर ऐसा क्यों न हो, हमारी संस्कृति में अतिथि का स्थान देवतुल्य माना गया है।
5. मैं चाहे ये करूं-मैं चाहे वो करूं
क्या यह कम खुशी की बात है कि हम एक लोकतात्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं! पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था, डेमोक्रेसी इज द गवर्नमेंट ऑफ द पीपल, बाय द पीपल, फॉर द पीपल। यह बात हमारे लोकतात्रिक देश पर पूरी तरह लागू होती है। हमें धर्म, शिक्षा, अभिव्यक्ति, एक से दूसरे स्थान पर जाने सहित कई अधिकार मिले हुए हैं।
6. विविधता में एकता
रंग-बिरंगी है संस्कृति हमारे देश की। इसीलिए तो कहा गया है, कोस-कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी, लेकिन विविधताओं के बावजूद इस देश में एकता है।
7. बैंड बाजा बारात
इस रंगीन देश का हर आयोजन रंगीन है। जन्म, शादी व संस्कार.. जिंदगी के हर पड़ाव पर मौज-मस्ती, धूमधड़ाका हमारी फितरत है।
8. प्रतिभाओं का देश
नए विचारों व प्रतिभाओं की भारत में कोई कमी नहीं। यहा के चुनिंदा दिमाग विश्वभर में अपने ज्ञान का परचम लहरा रहे हैं। कोई भी क्षेत्र हो, हमने हर जगह अपनी काबिलीयत प्रमाणित की है।
9. परोपकार है परमधर्म
दुख किसी का भी हो, हम उसमें शामिल होते हैं और मदद का हाथ आगे बढ़ाने से पीछे नहीं हटते। पड़ोसी धर्म निभाना हो या सामाजिक धर्म.., इंसानियत अभी बाकी है यहा।
10. थोडे़ में गुजारा होता है
हमें तो कबीरदास सिखा गए हैं, साईं इतना दीजै जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए..। कम से कम संसाधनों में जीने की जिद हम भारतीयों में पैदाइशी होती है।
गुलिस्ता को क्या हुआ..

अपने देश से प्यार है तो शिकायतें भी कम नहीं हैं हमें। जानें क्या-क्या हैं ये शिकायतें।

1. भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का खेल
नौकरशाही से राजनीति तक.. भ्रष्टाचार की जडें़ यहा बहुत गहरी हो चुकी हैं। हजारों अन्ना आदोलन करें, तब शायद बदलाव आ सके।
2. हॉरर किलिंग
आजादी के इतने वर्षों बाद भी जाति व गोत्र के नाम पर ऑनर किलिंग की घटनाएं हो रही हैं। विकास की राह में ऐसी बातें बहुत बड़ा रोड़ा हैं।
3. टैक्स की मार
आम जनता बढ़ती महंगाई व टैक्स की मार से त्राहि-त्राहि कर रही है। आय पर टैक्स, बाहर खाने व सड़क पर चलने का टैक्स..। हम भारतीयों की पूरी उम्र टैक्स चुकाने में ही खत्म हो जा रही है।
4. ट्रैफिक जाम
कितने फ्लाईओवर बनें, मेट्रो सेवाएं शुरू हों, सड़कों पर भीड़ कम नहीं होती। घर से निकलने के बाद मालूम नहीं होता कि वापस कब लौटेंगे।
5. पर्यावरण की परवाह क्या
अपने घर में हम सफाई पसंद हैं, लेकिन बाहर कूड़ा फेंकने से बाज नहीं आते। प्लास्टिक व कचरा सड़कों पर फेंकते हुए हमारे हाथ नहीं कापते।
6. अजब लोकतंत्र की गजब व्यवस्था
आजादी के इतने वर्षों बाद भी गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी के अलावा आतंकवाद, जाति-धर्म जैसे बडे़ कारण हमें चिंतित करने को काफी हैं। लोकतंत्र राजनेताओं की बपौती हो चुका है। हम यही सोचकर खुश हैं कि लोकतंत्र में हैं और व्यवस्था तो खैर.. रामभरोसे है।
7. विरोधाभासों का देश
एक ओर मॉल्स-मल्टीप्लेक्सेज तो दूसरी ओर न्यूनतम पब्लिक ट्रासपोर्ट तक नहीं, एक ओर देवी पूजन, दूसरी ओर बलात्कार व दहेजहत्या, एक तरफ आस्था, दूसरी ओर अंधविश्वास, एक ओर विकास के नारे, दूसरी ओर गावों में मूलभूत सुविधाएं नहीं..।
8. सिर्फ अपनी मर्जी
आजादी का नकारात्मक पहलू यह है कि हम अपनी मर्जी को बहुत महत्व देने लगे हैं। अनुशासन व समय की पाबंदी का हमें ख्याल नहीं है। सार्वजनिक संपत्ति का दुरुपयोग करना हमें जन्मसिद्ध अधिकार लगता है।
9. विकृत मानसिकता
या देवी सर्वभूतेषु वाले देश का हाल यह है कि जगह-जगह दीवारों पर और सार्वजनिक शौचालयों तक में स्त्री को अपमानित करने वाले जुमले देखे जा सकते हैं। यह बात कश्मीर से कन्याकुमारी तक लागू होती है।
10. गिले-शिकवे का देश
अंत में एक बात हम सभी पर लागू होती है। हम व्यवस्था में सुधार तो चाहते हैं, लेकिन इसके लिए पहलकदमी नहीं करना चाहते। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि तो हम चाहते हैं, लेकिन अपने नहीं-पड़ोसी के घर में।

मैं युवाओं से अपील करता हूं कि बेहतर भारत के लिए वे एकजुट हों। भ्रष्टाचार से मुक्त होकर ही हम सही मायने में आजाद कहलाएंगे। यह हमारा दूसरा स्वतंत्रता संग्राम होगा।
-विवेक ओबेराय

राजनेताओं का असंसदीय व्यवहार मुझे समझ नहीं आता। जब ये सदन में कुर्सिया फेंकते हैं, मारपीट करते, गालिया देते हैं, कागज फाड़ते हैं, तब संविधान के प्रति इनका सम्मान कहा चला जाता है?
-अनुपम खेर

तेलंगाना का उदय: पूरी दास्तां...Telangana..

तेलंगाना का उदय: पूरी दास्तां

Telanganaकई दशकों से आंध्र प्रदेश से पृथक राज्य की मांग को
 मूर्त रूप देते हुए सरकार ने तेलंगाना के रूप में देश के 29 वें राज्य की घोषणा की है। तेलंगाना के अस्तित्व में आने के साथ ही कई छोटे राज्यों की मांग फिर से उठने की उम्मीद है:

क्षेत्रफल: 1.14 लाख वर्ग किमी.
जनसंख्या: 3.52 करोड़
जन घनत्व: 310 वर्ग किमी
प्रति व्यक्ति आय: 69 हजार
सालाना साक्षरता दर: 65 फीसद

जिले: आंध्र प्रदेश के उत्तरी हिस्से के 10 जिले आते हैं। जिनमें हैदराबाद, वारंगल, आदिलाबाद, खम्मम, महबूबनगर, नलगोंडा, रंगारेड्डी, करीमनगर, निजामाबाद और मेडक जिले शामिल हैं।

नदियां: मुसी, कृष्णा और गोदावरी

धरोहर: यूनेस्को ने इस साल मार्च में वारंगल शहर को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।

नाम: माना जाता है कि त्रिलिंग देश शब्द से तेलंगाना शब्द की उत्पत्ति हुई है। मान्यता है कि तेलंगाना की सीमाओं को बनाने वाली तीन पहाड़ियों कालेश्वरम, श्रीसैलम और द्राक्षाराम में शिवलिंग स्थापित हैं। इन्हीं के आधार पर त्रिलिंग शब्द की व्युत्पत्ति हुई।

पृष्ठभूमि
आजादी के पहले यह निजाम के अधीन हैदराबाद रियासत का अंग था। 1948 में निजाम शासन के पतन के बाद इसके तेलुगु भाषी जिलों को आंध्र राज्य में शामिल किए जाने के मसले पर बहस शुरू हुई।
आंध्र राज्य
मद्रास प्रेजीडेंसी के उत्तरी हिस्से के तेलुगु भाषी जिलों (रायलसीमा और तटीय आंध्र) को अलग राज्य बनाए जाने के लिए पोट्टी श्रीरामुलू के नेतृत्व में सबसे पहले मांग शुरू हुई। 1952 में उनकी मौत के बाद आंदोलन हिंसक हो गया। नतीजतन एक अक्टूबर, 1953 को आंध्र राज्य अस्तित्व में आया।

राज्य पुर्नगठन आयोग
1953 में भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के लिए राज्य पुर्नगठन आयोग (एसआरसी) बनाया गया। इसने तेलंगाना को आंध्र से पृथक अलग राज्य बनाए जाने की वकालत करते हुए इसके लिए हैदराबाद राज्य के नाम का सुझाव दिया। उसमें यह भी प्रावधान किया गया था कि यदि यह आंध्र में शामिल होना चाहे तो 1961 के विधानसभा चुनाव के बाद दो तिहाई सदस्यों की सहमति से यह आंध्र प्रदेश में शामिल हो सकता है।

 

अलग तेलंगाना की अलख जगाने वाले राव की पूरी कहानी...

नई दिल्ली। दशकों पुरानी अलग तेलंगाना राज्य की लड़ाई अब मुकाम तक पहुंच गई है। तमाम विरोध और पेचीदगियों के बावजूद संप्रग सरकार ने अब आंध्र प्रदेश को विभाजित कर अलग तेलंगाना राज्य बनाने के फैसले को हरी झंडी दिखा दी है।

पृथक तेलंगाना राज्य बनाने के कांग्रेस कार्यसमिति के फैसले का स्वागत करते हुए तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव ने मंगलवार को मांग की कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को साझी राजधानी बनाये जा रहे हैदराबाद के बारे में स्पष्टीकरण देना चाहिए। राव इस आंदोलन के राजनीतिक चेहरा हैं।

कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव का जीवन परिचय
तेलंगाना राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष और पंद्रहवीं लोकसभा के सदस्य कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव का जन्म 17 फरवरी, 1954 को आंध्र प्रदेश के मेदक जिले में हुआ था। वर्तमान समय में चंद्रशेखर राव महबूबनगर, आंध्र प्रदेश से सांसद हैं। इन्होंने तेलुगु साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि भी ग्रहण की है। चंद्रशेखर राव का विवाह प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी जे. केशवराव की पुत्री शोभा से हुआ है। इनके बेटे के.टी. रामाराव राज्य के विधायक हैं।

कल्वाकुंतला चंद्रशेखर राव का राजनैतिक सफर
1983 के विधानसभा चुनावों में हार के साथ चंद्रशेखर राव के राजनैतिक कॅरियर की शुरूआत हुई। आगामी 1985 के चुनावों में तेलुगु देशम पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज करने के बाद वह विधानसभा सदस्य बन कैबिनेट में शामिल हुए। तेलुगु देशम पार्टी के सदस्य के तौर पर चंद्रशेखर राव विधानसभा उपाध्यक्ष भी रहे लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री से मनमुटाव बढ़ जाने के कारण उन्होंने तेलुगु देशम पार्टी से इस्तीफा दे दिया।
तेलांगाना राष्ट्रीय समिति की स्थापना
तेलंगाना नामक एक अलग राज्य की मांग को लेकर चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्रीय समिति की स्थापना की। कांग्रेस के साथ गठबंधन का निर्माण कर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने 2004 के चुनावों में हिस्सा लिया। चंद्रशेखर राव को जब यह लगने लगा कि कांग्रेस तेलंगाना निर्माण के लिए समर्थन देने की इच्छुक नहीं है तो उन्होंने कांग्रेस से अपना समर्थन वापस ले लिया। 2009 में विपक्षी दल के साथ गठबंधन कर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा।
लेकिन मात्र दो सीटों पर ही जीत दर्ज हो पाई।
इस चुनावी असफलता के कारण पार्टी के अधिकांश सदस्यों ने चंद्रशेखर राव को ही दोषी ठहराया। इन आरोपों से आहत होकर राव ने कुछ समय के लिए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। 2010 के उपचुनावों में तेलांगाना राष्ट्रीय समिति ने ग्यारह सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी क्षेत्रों में जीत हासिल की।

 

 

Tuesday, 30 July 2013

पानिपत येथून आणलेली माती- माझी प्रेरणा !

पानिपत येथून आणलेली माती- माझी प्रेरणा ! 


इतिहास घडवणारी माणस इतिहास विसरू शकत नाही आणि इतिहास विसरणारी माणस इतिहास घडवू शकत नाही !
दररोज पहाटे "पानिपत च्या मातीला" हात लाऊन त्याचा स्पर्श अनुभवून त्यास नमन करून दिवसाची सुरुवात करताना खुप उर्जा मिळते..रोज पहाटे सुरुवात करताना "पानिपतची माती" शौर्याची जाणीव करून देते..त्यामुळे आयुष्यात येणारी अनेक संकटे हि छोटी वाटतात..
अनुभवास येणारा संघर्ष हा छोटा जाणवतो.."पानिपतची माती" मला आणखी मोठ्या संघर्षाचे आव्हान करते..

Monday, 29 July 2013

संसद.. Parliament..

संसद..Parliament..

 एक नजर हमारे पूरे संसद और उसकी सभी कार्यप्रणाली पर !

 

Part 1 -  Part 2Part 3 - Part 4 -

 


संसद,केन्द्र सरकार का विधाय अंग हे. संसदीय प्रणाली,जिसे सरकार का वेस्टमिस्तर माडल भी कहते हे,अपनाने के कारण भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था मे संसद एक विशिष्ट व केन्द्रीय स्थान रखती है .
संविधान के पाचवे भाग के अंतर्गत अनुच्छेद ७९ से १२२ मे संसद के गठन ,संरचना,अधिकारियो,प्रक्रिया,विशेषाधिकार,व श्क्ति आदि के बारे मे वर्णन किया गया है. 

संसद का गठन-

               संविधान के अनुसार भारत की संसद के तीन अंग है- राष्ट्रपति,लोकसभा व राज्यसभा . १९५४ मे राज्य परिषद एव जनता का सदन के स्थान पर क्रमश; राज्यसभा एव लोकसभा शब्द अपनाया गया। राज्यसभा ,उच्च सदम कहलाता है जबकि लोकसभा निचला सदन कहलाता है। राज्यसभा मे राज्य व संघ राज्य शेट्रो के प्रतिनिधि होते है, जबकि लोकसभा सम्पूर्ण रूप मे भारत के लोगो का प्रतिनिधितव करती है।

हालाकी राष्ट्रपति संसद के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होता है और न ही वह संसद मे बैठता है। लेकिन राष्ट्रपति ,संसद का अभिन्न अंग है। एसा इसलिये है क्योकी संसद के दोनो सदनो द्वारा पारित कोई विधेयक तब तक विधि नहीं बंटा ,जब तक राष्ट्रपति उसे अपनी अधिकृति न देता। राष्ट्रपति,संसद के कुछ चुनिंदा कार्य भी करता है।उदाहरण स्वरूप -राष्ट्रपति दोनो सदनो का सत्र आहूत करता है। याफिर सत्रावसान करता है। वह लोकसभा को विघटित कर सकता है। जब संसद का सत्र न चल रहा हो, वह अध्यादेश जारी कर सकता है आदि।

इस मामले मे भारतीय संविधान ,अमेरिका के स्थान पर ब्रिटेन की पद्धति पर आधारित है। ब्रिटेन की संसद ताज (राजा या रानी) ,हॉउस ऑफ लॉर्ड व हॉउस ऑफ कॉमन्स से मिलकर बनती है। इसके विपरीत,अमेरिका राष्ट्रपति विधानमंडल का महतवपूर्ण अंग नहीं है। अमेरिका विधानमंडल के कॉंग्रेस के नाम से जाना जाता है। कॉंग्रेस के अंतर्गत सीनेट ,हॉउस ऑफ रीप्रेसेन्टिव होते है।
सरकार की संसदीय पद्धति मे विधाय व कार्यकारी अंगो मे परस्पर निर्भरता पर जोर दिया जाता है। अंत; हमारे संसद मे राष्ट्रपति ,ब्रिटेन की संसद मे ताज की तरह है। वह दूसरी तरह, राष्ट्रपति पद्धति वाली सरकार मे विधाय और कार्यकारी अंगो को अलग करने पर जोर दिया जाता है। इसीलिये अमेरिका राष्ट्रपति,कॉंग्रेस का घटक नहीं माना जाता है।

दोनो सदनो की संरचना-  


राजसभा की संरचना:
                    राज्यसभा की अधिकतम सांख्या २०५ निर्धारित है। इनमे मे २३८ सदस्य राज्यो व संघ राज्यो शेत्र के प्रतिनिधि (अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित) होंगे, जबकि १२ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोमित किये जायेंगे।
वर्तमान मे राज्यसभा मे २४५ सदस्य है।इनमे २२९ सदस्य राज्यो का प्रतिनिधितव करते है,४ संघ राज्य शेत्र का प्रतिनिधितव करते है और १२ सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोमित है।
संविधान की चौथी अनुसूची मे राज्यसभा के लिये राज्यो व संघ ष्ट्र मे सीटो के आवंटन का वर्णन किया है।
१) राज्यो का प्रतिनिधितव:
                      राज्यसभा मे राज्यो के प्रतिनिधि का निर्वाचन राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य करते है। चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधितव पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। राज्यसभा के लिये राज्यो की सीटो का बंटवारा उनकी जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। इसलिये राज्यो के प्रतिनिधीयो की सांख्या अलग-अलग राज्यो मे अलग होती है। उदाहरण स्वरूप- उत्तर प्रदेश से ३१ सदस्य है जबकि त्रिपुरा से १ सदस्य है। अमेरिका मे "सीनेट" मे राज्यो का प्रतिनिधितव बराबर होता है (जनसंख्या के आधार पर नहीं). हालांकि अमेरिका मे,जनसंख्या के स्थान पर सभी राज्यो को सीनेट मे समान प्रतिनिधित्व दिया गया है। अमेरिकी सीनेट मे कुल १०० सीटे है तथा प्रटेक राज्य को २ सीटे प्राप्त है।

२) संघ राज्य शेत्र का प्रतिनिधित्व:
                             राज्यसभा मे संघ राज्यशेत्र का प्रटेक प्रतिनिधि इस कार्य के लिये निर्मित एक निर्वाचक मंडल स्वारा चुना जाता है। यह चुनाव भी  आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है। ७ संघ राज्य शेत्र मे से सिर्फ २ (दिल्ली व पद्डुचेरी) के प्रतिनिधि राज्यसभा मे है। अन्य पांच संघ शासित प्रदेशो की जनसख्या तुलनात्मक रूप से काफी काम होने के कारण राज्यसभा मे उन्हे अलग प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।

३) नामित या नाम निर्देशित सदस्य:
                              राष्ट्रपति,राज्यसभा मे १२ एसे सद्स्यो को नामित या नाम निर्देशित करता है। जिन्हे कला ,साहित्य,विज्ञान और समाजसेवा ,विषयो के सम्बंध मे विशेष ज्ञान या व्यवहारिक अनुभव हो। एसे व्यक्तियो को नामांकित करने के पीछे उद्देश् है की, नामी या प्रसिध व्यक्ति बिना चुनाव के राज्यसभा मे जा सके। यहा यह ध्यान देने वाली बात है की अमेरिकी सीनेट मे कोई नामित सदस्य नहीं होता है।

लोकसभा की संरचना:
                     लोकसभा की अधिकतम सांख्या ५५२ निर्धारित की गयी है। इनमे से ५३० राज्यो के प्रतिनिधि ,२० संघ राज्य शेत्र के प्रतिनिधि होते है। एगलो-इंडियन समुदाय के दो सद्स्यो को राष्ट्रपति नामित या नाम निर्देशित करता है।
                    वर्तमान मे लोकसभा मे ५४५ सदस्य है। इनमे से ५३० सदस्य राज्यो से, १३ सदस्य संघ राज्य शेत्र से और दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामित या नाम निर्देशित एंग्लो-इंडियन से है।

१) राज्यो का प्रतिनिधित्व:            
                    लोकसभा मे राज्यो के प्रतिनिधि राज्यो के विभिन्न निर्वाचन ष्ट्र के लोगो द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते है। भारत के हर नागरिक को जिसकी उम्र १८ वर्ष से अधिक है और जिसे संविधान या विधि के उपबंधो के मुताबिक अयोग्य नहीं ठहराया गया हो, मत देने का अधिकार है। ६१वे संविधान संशोधन अधिनियम , १९८८ द्वारा मत देने की आयु सीमा को २१ वर्ष से घटकर १८ वर्ष कर दिया।

२) संघ राज्यशेत्र का प्रतिनिधित्व:
                            संविधान से संसद के संघ राज्यष्त्र के प्रतिनिधीयो को चुनने की विधि के निर्धारण का अधिकार दिया है। इसी के तहत संसद ने संघ राज्य शेत्र अधिनियम १९६५ बनाया, जिसके तहत संघ राज्य शेत्र से प्रत्यक्ष निर्वाचन के तहत लोकसभा के सदस्य चुने जाते है।

३) नामित या नाम निर्देशित सदस्य:
                              अगर एंग्लो-इंडियन समुदाय का लोकसभा मे पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो, तो राष्ट्रपति इस समुदाय के दो लोगो को नामित या उनका नाम निर्देशित कर सकता है। शुरुवात मे या उपबंध १९६० तक के लिये थी लेकिन ७९वे संविधान संशोधन अधिनियम १९९९ मे इस उपबंध को २०१० तक के लिये बढ़ा दिया गया।
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Part 1 - Part 2 - Part 3 - Part 4-



                  

Sunday, 28 July 2013

संसद..Parliament..-भाग २

 संसद..Parliament..

 एक नजर हमारे पूरे संसद और उसकी सभी कार्यप्रणाली पर !

 भाग २ 



Part 1 - Part 2 - Part 3 - Part 4-


लोकसभा की चुनाव प्रणाली-
                       लोकसभा चुनाव प्रणाली से संबंधित पहलू इस प्रकार है-

प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र :
                                      लोकसभा के लिये प्रत्यक्ष निर्वाचन करने के लिये सभी राज्यो को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजित किया गया है। इस सम्बंध मे संविधान ने दो उपबंध बनाये है।

1) लोकसभा मे सीटो का आवंटन प्रटेक राज्य को ऐसी रीति से किया जायेगा की स्थानो की सांख्या से उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात sabhi राज्यो के लिये यथा साध्य एक ही हो।  यह उपबंध उन राज्यो पर लागू नहीं होता जिनकी लोकसंख्या ६० लाख से कम है।

२) प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे ऐसी रीति से विभाजित किया जायेगा की प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्रो को जनसंख्या का उसको आवंटित स्थानो की सांख्या से अनुपात समस्त राज्य मे यथा साध्य एक ही हो।

                                        संक्षेप मे ,संविधान सुनिचित करता है की। (क) राज्यो के बीच (ख) उस राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो के बीच, प्रतिनिधित्व मे एकरुपता हो।

प्रत्येक जनगणना के पश्यत पुन: समायोजना -

                     हर एक जनगणना की समाप्ति होने पर पुन:समायोजना किया जाता है-
                     (अ) राज्यो को लोकसभा मे स्थानो का आबंटन और (ब) प्रत्येक राज्य का प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजन। संसद को यह अधिकार है की वह इसके लिये प्राधिकार और रीति का निर्धारण कर। इसी के तहत संसद ने १९५२,१९६२,१९७२ व २००२ मे परिसीमन आयोग अधिनियम लागू किए।
                     ४२वे संशोधन संविधान अधिनियम १९७६ मे राज्यो को लोकसभा मे स्थानो का आवंटन और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजन को वर्ष २००० तक स्थिर कर दिया गया (१९७१ की जनगणना के आधार पर) इस प्रतिबंध को ८४ वे संशोधन अधिनियम २००१ मे अगले २५ वर्षो (यानी वर्ष २०२६ तक) के लिये बढ़ा दिया गया।
                     ८४वे संविधान संशोधन अधिनियम,२००१ मे सरकार को यह शक्ति दी गई की वह १९९१ की जनगना की जनसंख्या के आधार पर राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो का पुन: समायोजन एव सयुक्तिकरण करती है। बाद मे ८७वे संशोधन संविधान अधिनियम २००३ मे निर्वाचन क्षेत्र का परिसीमन २००१ की जनगणना के आधार पर। हालांकि इस तरह के बदलाव राज्यो को लोकसभा मे स्थानो के आवंटन की सांख्या को बिना बदले किए जाते है।

अनुसूचित जाती व जनजातियो के लिए सीटो का आरक्षण-

                     हालांकि संविधान मे किसी धर्म विशेष की प्रतिनिधि पद्धति का त्याग किया है,लेकिन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर अनुसूचित जातियो व जनजातियो के लिए लोकसभा मे सीटे आरक्षित की गयी है। प्रारंभ मे यह आरक्षण १० वर्षो के लिए किया गया था (१९६० तक). इसके बाद इसे हर १० वर्ष बाद १० वर्ष तक के लिए बढ़ा दिया गया। ७९वे संशोधन संविधान अधिनियम ,१९९९, मे इस आरक्षण को २०१० तक के लिए बढ़ा दिया गया।
                     अनुसूचित जातियो व जनजातियो के लिए सीटे आरक्षित की गयी है लेकिन उनका निर्वाचन,निर्वाचन क्षेत्र के सभी मतदाताओ द्वारा किया जाता है। अनुसूचित जाती व जनजाति के सद्स्यो को सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से भी चुनाव लड़ने का अधिकार है।
                     ८४वे संशोधन अधिनियम,२००१ मे आरक्षित सीटो को १९९१ की जनगणना के आधार पर पुन: नीयत किया गया (सामन्य सीटो की तरह) ८७वे संशोधन अधिनियम २००३ मे आरक्षित सीटो को १९९१ की बजाए २००१ की जनगणना के आआधार पर पुन:नीयत किया गया।


आनुपातिक प्रतिनिधित्व न अपनाना-
                      हालांकि,संविधान मे राज्यसभा के लिए अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाई गई लेकिन इस प्रणाली को लोकसभा मे नहीं अपनाया गया। इसकी जगह,प्रादेशिक प्रतिनिधितव प्रणाली के जरिए लोकसभा के सद्स्यो को निर्वाचित करने का आधार बनाया गया।
                       प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अंतर्गत, विधानमंडल का प्रत्येक सदस्य एक भूभागीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे निर्वचन क्षेत्र कहा जाता है।
प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि निर्वाचित होता है। अट: एसे निर्वाचन क्षेत्र को एकल सदस्य निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है। इस पद्धति के तहत, जिस प्रत्याशी को अधिक मत प्राप्त होते है, उसे विजयी घोषित किया जाता है। प्रतिनिधित्व पूरी चुनाव प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व नहीं करता। दूसरे श्ब्दो मे, यह अल्पसंख्यांको (छोटे समूहो) के प्रतिनिधित्व को सुरक्षित नहीं करता।
                       आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का उद्देश् क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व विभेद को हटाना है। इस व्यवस्था के तहत लोगो के सभी वर्गो को अपनी सांख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व मिलता है। यहा तक की सबसे छोटी जनसंख्या वाले वर्ग को भी विधानमंडल से इसका हिस्सा मिलता है।
                       आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दो प्रका है, जिसके नाम है- एकल हस्तांतरण मत व्यवस्था एव सूची व्यवस्था। भारत मे राज्यसभा , राज्य विधान परिषदो, राष्ट्रपति एव उपराष्‍ट्रपति के निर्वाचन के लिये पहिले प्रकार की व्यवस्था को अपनाया गया।
                        यद्यपि संविधान सभा के कुछ सद्स्यो ने लोकसभा सद्स्यो के चुनाव के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की वकालत की थी लेकिन इसे संविधान मे दो कारणो से नहीं अपनाया गया-

१। मतदाताओ के लिए मतदान प्रक्रिया (जो की जटिल है) समझने मे कठिनाई , क्योकि देश मे शैषनिक स्टार काम है।
२। बाहुदलीय व्यवस्था के कारण संसद की अस्थिरता।

इसके अलावा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के निम्नलिखित दोष है-
१) यह काफी खर्चीली व्यवस्था है।
२) यह उपचुनाव का कोई अवसर प्रदान नहीं करती।
३) यह मतदाताओ एव प्रतिनिधीयो के बीच आत्मीयता को काम करती है।
४) यह अल्पसंख्यांक एव सामूहिक हिटो को बढ़ावा देती है।
५) यह पार्टी व्यवस्था के महत्व को बढ़ावा देती है एव मतदाताओ के महतव को काम करती है।

Part 1- Part 2 - Part 3 - Part 4-



संसद...Parliament भाग ३

संसद...Parliament -  

भाग ३

Part 1 - Part 2 - Part 3 -Part 4 -

दोनो सदनो की अवधि :
                

राज्यसभा की अवधि -

                   राज्यसभा (पहली बार १९५२ मे स्थापित) निरंतर चलने वाली संस्था है। यानी, यह एक स्थायी संस्था है और इसका विघटन नहीं होता किन्तु इसके एक-तिहा सदस्य हर दूसरे वर्ष सेवानिवृत होते है। ये सीटे चुनाव के द्वारा फिर भरी जाती है और राष्ट्रपति द्वारा har तीसरे वर्ष के शुरुवात मे मनोचयन होता है। सेवा निवृत होने वेल सदस्य कितनी बार भी चुनाव लड़ सकते है और नामित हो सकते है।
                    संविधान ने राज्यसभा के सद्स्यो के लिए पदावधि निर्धारित नहीं की थी, इसे संसद पर छोड़ दिया गया था। इसी के तहत जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (१९५१) के आधार पर संसद ने कहा की, राज्यसभा के सद्स्यो की पदावधि छह साल की होनी चाहिए। इस अधिनियम ने भारत के राष्ट्रपति को पहली राज्यसभा मे चुने गए सद्स्यो की पदावधि काम करने का अधिकार दिया। पहले बैच मे यह तय हुआ की लॉटरी के आधार पर सद्स्यो को सेवानिवृत किया जाए। इसके अलावा ,इस अधिनियम द्वारा राष्ट्रपति को राज्यसभा के सद्स्यो की सेवानिवृत्ति के आदेश को शासित करने वाले उपबंध बनाने का अधिकार भी दिया गया।

लोकसभा की अवधि -

                  राज्यसभा से अलग, लोकसभा जारी रहने वाली संस्था नहीं है। सामान्य तौर पर इसकी अवधि आम चुनाव के बाद हुई पहली बैठक से पांच वर्ष के लिए होती है, इसके बाद यह खुद विघटित हो जाती है। हालांकि राष्ट्रपति को पांच स्सल से पेहले किसी भी समय विघटित करने का अधिकार है। इसके खिलाफ न्यायालय मे चुनोती नहीं दी जा सकती।
                   इसके अलावा लोकसभा की अवधि आपात की स्थिति मे एक बार मे एक वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है। लेकिन इसका विस्तार किसी भी दशा मे आपातकाल खत्म होने बाद छह महीने की अवधि से अधिक नहीं हो सकता।


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प्रशासना बद्दल महत्वाचे..

प्रशासना बद्दल महत्वाचे..

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 डिस्क्लेमर: लोकप्रशासनावरील हा ऑथेंटिक वगैरे लेख नाही. प्रशासनाशी सहसा संबंध न येणाऱ्या मित्रांना ढोबळ कल्पना यावी एवढाच हेतू आहे. कुणी भर टाकल्यास स्वागत आणि आनंद आहे. काही चूक आढळल्यास अवश्य सांगावे.

जिल्हा प्रशासनामध्ये दोन प्रमुख उतरंडी असतात. राज्या राज्यांनुसार थोडे फरक असतात. प्रस्तुत संदर्भामध्ये –

विकास (डेव्हलपमेंट) उतरंड / हाएरार्की–

कलेक्टर – पीडी(डीआरडीए)/ अध्यक्ष जि.प. – बीडीओ/ सभापती पंचायत समिती – पीइओ/ सरपंच

पीडी(डीआरडीए) – प्रोजेक्ट डायरेक्टर (डिस्ट्रिक्ट रुरल डेव्हलपमेंट एजन्सी) (महाराष्ट्रात सीइओ असतात, पीडी पेक्षा रॅंक आणि जबाबदारीने वरचे पद); बीडीओ – ब्लॉक डेव्हलपमेंट ऑफिसर; पीइओ - पंचायत एक्स्टेन्शन ऑफिसर (महाराष्ट्रात ग्रामसेवक असतात.).

महसूल (रेव्हेन्यू) उतरंड –

कलेक्टर (जिल्हाधिकारी/ जिल्लापाळ) – सबकलेक्टर (उपजिल्हाधिकारी/ उपजिल्लापाळ - प्रांत) – तहसीलदार – रेव्हेन्यू इन्स्पेक्टर.

(रेव्हेन्यू इन्स्पेक्टर हा साधारणपणे पन्नास साठ गावे पाहतो. जमीनीचे सर्व कागद याच्या ताब्यात असतात. सरकारची शेवटची कडी. पृथ्वीवरचा सर्वात महत्त्वाचा माणूस! आपल्याकडे जसा तलाठी!)

याशिवाय कायदा सुव्यवस्था राखण्याची जबाबदारी या महसूल यंत्रणेतील अधिकाऱ्यांकडे असते. ते एक्झिक्युटिव्ह मॅजिस्ट्रेट असतात. म्हणजे कलेक्टर असतो डिस्ट्रिक्ट मॅजिस्ट्रेट (डीएम), सबकलेक्टर – सब डिव्हिजनल मॅजिस्ट्रेट (एसडीएम), तहसीलदार – एक्झिक्युटिव्ह मॅजिस्ट्रेट. ही मंडळी क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, तसेच पोलीस ऍक्ट अंतर्गत काही अधिकार बाळगून असतात. कायदा सुव्यवस्थेसाठी हे जबाबदार असतात, आणि पोलीसांच्या साहाय्याने त्यांनी हे काम करायचे असते. गुन्हे तपासामध्ये यांचा काही संबंध नसतो. ते पोलीसांचे काम. म्हणजे पोलीसांना दुहेरी काम असते – कायदा-सुव्यवस्था, आणि गुन्हे अन्वेषण. [हे ग्रामीण भागात. शहरी भागात पोलीस कमिशनरेट असेल, तर असे अधिकार पोलीसांकडेच असतात. म्हणून त्यांना कमिशनर असे पद असते. म्हणजे आयुक्त – आयोगाचे अधिकारी, अर्धन्यायिक काम. पोलीस त्यामुळे कायदा सुव्यवस्था संपूर्णपणे सांभाळतात. तसेच वेगवेगळ्या किरकोळ परवानग्या/ लायसेन्स – मोर्चा/ लाउडस्पीकर/ इ. तेच देतात.]

तसेच, डिझॅस्टर मॅनेजमेंट ही संपूर्णपणे रेव्हेन्यू अधिकाऱ्यांची जबाबदारी असते. इमर्जन्सी ड्यूटी यांच्याकडे असते. उदा. पूर, दुष्काळ, उष्माघात, अपघात, इ.

निवडणुकांचे काम रेव्हेन्य़ू अधिकाऱ्यांनाच करावे लागते.

जनगणना यांच्याकरवीच.

व्यक्तीच्या ओळखीशी संबंधित रहिवासी प्रमाणपत्र, जातीचे दाखले, उत्पन्नाचे दाखले, पासपोर्टसाठी प्रमाणपत्र इ. दाखले देण्याचे अधिकार यांच्याकडे असतात. कदाचित माणसाची ओळख जमिनीशी निगडित असते, आणि जमिनीचे काम बघणारे लोक म्हणून असेल. (काही राज्यांत हे अधिकार लोकनियुक्त प्रतिनिधींना दिलेले आहेत, पण अशी प्रमाणपत्रे सगळीकडे ग्राह्य धरली जात नाहीत, फॉर ऑबव्हियस रीझन्स, आणि मुळातच ते त्यांचे काम नव्हेच.)

ही ठळक कामे. याशिवाय बरीच कामे असतात.

इतर विभाग – लाइन डिपार्टमेंट्स

यांना जिल्हे नसतात. म्हणजे यांचे जिल्हे थोडे वेगळे असतात असे म्हणणे जास्त योग्य ठरेल. म्हणजे असं – प्रत्येक खात्यासाठी एकेक मंत्री असतात. ते राज्यातले त्या त्या खात्याचे टॉप एक्झिक्युटिव्ह. हे टू इन वन असतात – एक्झिक्युटिव्ह पण आणि लेजिस्लेटर पण. जसे रेव्हेन्यू अधिकारी टू इन वन असतात – एक्झिक्युटिव्ह पण आणि (क्वासी) ज्युडिशियल पण.

मंत्री – सेक्रेटरी – डायरेक्टर – जिल्हा स्तरावरील अधिकारी.

उदा. शिक्षण मंत्री – शिक्षण सचिव – शिक्षण संचालक – जिल्हा शिक्षण अधिकारी – शिक्षण निरीक्षक.

हे ढोबळ उदाहरण झाले. प्रत्यक्षात थोडी अधिक गुंतागुंत असते. म्हणजे, वरील उदाहरणात बीडीओ, जिल्हा परिषद, कलेक्टर यांचेही अधिकार मिसळलेले असतात. शिवाय, सचिवालयाची वेगळी उतरंड असते, निर्देशालयाची (डायरेक्टोरेट/ डिरेक्टोरेट) वेगळी उतरंड.

सेक्रेटरी – सचिव हे खरे नोकरशहा. ब्युरोक्रॅट्स. मंत्र्यांचे सल्लागार. हे एक्झिक्युटिव्ह यंत्रणेचे सगळ्यात वरचे अधिकारी. डायरेक्टर म्हणजे फिल्डवरचे लोक आणि ब्युरोक्रॅट्सना जोडणारी कडी. यांच्या कामात सचिव आणि जिल्हा स्तरावरचे अधिकारी यांच्या प्रोफाइलचा संगम असतो. जिल्हा स्तरावरचे अधिकारी म्हणजे फिल्डवरचे लोक.

फिल्डवरचे सगळे अधिकारी जरी आपापल्या उतरंडीमध्ये काम करत असले, तरीही जिल्हा प्रशासनाला टाळून त्यांना काम करता येत नाही. त्यामुळे जिल्हा प्रशासन प्रमुख अर्थात कलेक्टर हा एकप्रकारे त्यांचा (म्हणजे सगळ्या जिल्ह्याचाच) सुपरवायजरी अधिकारी असतो.

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विशेष टिप्पणी!

आमदार/ खासदार/ लोकनियुक्त प्रतिनिधी यात नेमके कुठे येतात हे सूज्ञांना वेगळे सांगायला नकोच.

माझ्या मते ते ‘नेमके’ कुठेच नसतात, दुधात मिसळलेल्या साखरेसारखे/ मिठाच्या खड्याप्रमाणे सर्वव्यापी असतात! त्यांच्या चवीनुसार व्यवस्था नीट काम करते किंवा फेफरे आल्यासारखी वागून आपली वाट लावते.

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निजामाच्या तावडीतून सुटून आम्ही, म्हणजे आम्ही सध्याचे आठ जिल्हे


निजामाच्या तावडीतून सुटून आम्ही, म्हणजे आम्ही सध्याचे आठ जिल्हे 

 


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निजामाच्या तावडीतून सुटून आम्ही, म्हणजे आम्ही सध्याचे आठ जिल्हे औरंगाबाद, जालना, बीड, परभणी, उस्मानाबाद, लातूर, नांदेड आणि हिंगोली भारत नावाच्या देशात ज्याचा की आपल्या सगळ्यांनाच अतिशय अभिमान आहे, मराठवाडा म्हणून सामील झालो. एक प्रकारे मुक्त झालो. निझाम गेले पळून. पटेलांना मानावे लागेल. पण निझाम जातांना निझामशाही मात्र तशीच सोडून गेले. पण त्यात पटेलांचा काही दोष नाही.

निझामशाहीचे संस्कार आमचे इतके घट्ट की अगदी अलीकडे पर्यंत आमच्याकडे राजकारणी सरंजामशाही वगैरे काही गेलेली नाही अशा अविर्भावात राहायचे. धर्मसत्ता आमच्याकडे मागपर्यंत इतकी सशक्त होती की भल्या भल्या दलितांना आम्ही छोट्या मोठ्या मंदिरात ही प्रवेश नाकारलाय. नामांतराला विरोध आम्ही जितका केला तितका कदाचित दुसरीकडे होणे अशक्य होते. पुण्यात झाला असता पण नुसताच शाब्दिक; आमच्याकडे धर्म आणि जातीवर जीव ओवाळून टाकण्याची फार महान परंपरा आहे. स्त्रीचा आदर कसा नाही करायचा हे आम्हाला विचारा. आणि ते करण्याची पाळीच येऊ नये म्हणून काय करायचे ते ही आमच्या इतके कुणालाच माहित नाही. कमीत कमी लेखी तरी. पण आमचा असा संशय आहे की हरयाणा आणि पंजाब मध्ये आम्हाला या क्षेत्रात मागे टाकण्याची ताकत आहे. ही फार मोठी खंत.

आमच्याकडे पाणी वगैरे हा देवानेच बघायचा कारभार असल्याने आम्ही 'दादां' ना देव मानून अनेक गोष्टी त्यांच्यावर सोडल्यात. बाकी कधी कधी पाऊस पडतो; पण तो कदाचित इथे होवून गेलेल्या संतांच्या वशिल्याने पडत असावा असे वाटते. इथे अनेक संत होवून गेले. नावे आठवत  नाहीत. कदाचित एकनाथ, नामदेव, हम्म, हम्म, ज्ञानेश्वर, तुकाराम आणि आम्हाला असे दाट वाटते की संत कबीर सुद्धा. पण असे ही कुणाच्या काहीच लक्षात नसल्याने उगाच सांगून ही जास्त अर्थ नाही. पण इकडे संत जन्माला जरी आले असले तरी अनेकांनी हा भाग सोडून जाण्याचाच निर्णय घेतला. अनेकांच्या प्रबोधनालाही अशी माती दाखवाणारा आमचा हा भाग. इथून ज्ञानेश्वर शिकून निघून गेले, रामदास स्वामी निघून गेले आणि साई बाबाही. इतकेच काय तर शिवाजी महाराजही मूळचे इथचेच. तर असा हा आमचा संतांना आणि महान लोकांना जन्माला घालणारा प्रदेश. कदाचित पृथ्वी अस्तित्वात असल्यापासून येथे आहे आणि तरीही अजूनही आहे तेथेच आहे. वेरूळ-अजंठा वगैरे सोडले तर जग प्रसिद्ध म्हणवे असे मानव निर्मित आमच्याकडे काही नाही; किल्लारीचा भूकंप नैसर्गिक होता! आणि असेल तर कमीत कमी आतल्या नवीन पिढीला आणि बाहेरच्या कुणालाही माहित तरी नाही. असो.

अनेक बाहेरच्या लोकांना, म्हणजे महाराष्ट्र बाहेरच्या लोकांना आणि अनेक कोकणातल्या लोकांनाही शरद पवार मराठवाड्यातले वाटतत. ही एक क्षणिक आनंदाची गोष्ट. पण ते खरच नाहीत ही अतिशय दुर्दैवाची बाब. मग बाकी आमच्याकडे नावे सांगण्या सारखे कुणी नाही. गोपीनाथ मुंडेना बाहेर लोक ओळखतात, पण नागपूर इतके मोठे आहे की परळी दिसतच नाही, अगदी त्यांच्या धरमपेठेतही मावेल इतकिच. बाकी धर्माच्या बाबतीत परळीत रुद्र आहेत, म्हणजे जोतिर्लिंग हो. पण रुद्राच्या इतके जवळ असूनही परळीला नागपूरचा जास्त राग येत नाही किंवा पर्यायाने करता येत नाही. शेवटी रुद्र ही विष्णूंच्या मानाने... असू द्या. पण मुंडे साहेब आहेत हा तितकाच मराठवाड्याला, देश्मुखांनंतर, काडीचा आधार (काडीचा = काडीचा; बुडत्याला = मराठवाड्याला,  so मराठवाड्या = बुडत्या, finally बुडता = मराठवाडा!). कारण मराठवाड्यात नेतृत्व असले तरी त्याला फक्त लोकांचा आधार आहे, त्याचा लोकांना नाही! म्हणजे इथे निर्विवाद सत्ता आहे अनेकांची अगदी वडिलोपार्जित. पण  पाणी प्रश्न? दादा ठरवतील. उद्योग? अबब, आपल्याला काय करायचे ते पुण्या-मुंबईचे फ्याड! असे आहे सगळे. पण अगदीच चटणी भाकरी वर समाधान मानणारा सामान्य वर्ग इथे असल्याने अतिशय संत वृत्तीचे लोक इथे पाहायला मिळतात आणि म्हणूनच “ठेविले अनंते तैसेची राहावे, चित्ती असू द्यावे समाधान” असे इथले राजकारणीही लोकांना सतत आठवण करून देतात. असो.

पण आम्ही आठही जिल्हे आम्हाला मुक्त करण्यासाठी लढलेल्या समस्त मराठवाडा/हैद्राबाद मुक्ती संग्रामातील प्रत्येकाला वंदन करून, विनंती करतो की “हे महान पुरुष हो आणि स्त्रियांनो, इथल्या खचलेल्यांना बळ द्या आणि असंख्य राजा बळींना जन्म देणाऱ्या आयांना कळ द्या”.

मराठवाडा/हैदराबाद मुक्ती संग्रामातील सर्व स्वातंत्र्य सैनिकांना स्मरून आणि इथल्या शांतचित्त जनतेच्या शांततेवर आश्चर्य व्यक्त करून सर्व मराठवाड्याच्या जनतेला आणि या मुक्तीने आनंदित झालेल्या इतर प्रत्येकाला मराठवाडा मुक्ती दिनाच्या हार्दिक शुभेच्छा!           
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                                                                                                      - आम्ही आठही जिल्हे.

संसद...Parliament..भाग ४

संसद...Parliament..

भाग ४



Part 1- Part 2- Part 3- Part 4 -


संसद की सदस्यता-


अहर्ताए-

संविधान ने संसद मे चुने जाने के लिए निम्नलिखित अहर्ता निर्धारित की है-
१) उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।
२)उसे निर्वाचन आयोग द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची मे दिए प्रारुप के अनुसार शपत या प्रतिज्ञान लेना चाहिये।
३) उसे राज्यसभा मे स्थान के लिए काम से काम ३० वर्ष की आयु का और लोकसभा मे स्थान के लिए काम से काम २५ वर्ष की आयु का होना चाहिये।
४) उसके पास ऐसी अन्य अहरताए होनी चाहिए, जो संसद द्वारा मांगी गई हो।

जन प्रतिनिधितव अधिनियम (१९५१) मे संसद ने निम्नलिखित अन्य अहर्ताए निर्धारित की है।
१) उस व्यक्ति को, राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के उस निर्वाचन क्षेत्र का पंजीकृत मतदाता होना चाहिये। यह लोकसभा एव राज्यसभा दोनो के निर्वाचन के लिए अनिवार्य है। वर्ष २००३ मे सरकार राज्यसभा के निर्वाचन के लिये यह बाध्यता समाप्त कर दी। बाद मे वर्ष २००६ मे उच्छ्तम न्यायालय ने भी सरकार के इस निर्णय हो वैध ठहराया।

२) यदि कोई व्यक्ति आरक्षित सीट पर चुनाव लढना चछ्ता है तो उसे किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्रो मे अनुसूचित जाती या जनजाति का सदस्य होना चाहिए। हालांकि अनुसूचित जाती या जनजाति के सदस्य उन सीटो के लिए चुनाव लड़ सकते है, जो उनके लिए आरक्षित नहीं है।

निरह्रताए -

संविधान के अनुसार कोई व्यक्ति संसद सदस्य नहीं बन सकता-

१) यदि वह भारत सरकार का किसी राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ या पद धारण करता है। (संसद द्वारा तय कोई पद या मंत्री पद को छोड़कर)
२) यदि वह विकृति चित्त है और न्यायालय ने ऐसी घोषणा की है।
३) यदि वह अनुनमोचित दिवालिया है।
४) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेछा से अर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्टा को अभिस्वीकार किए हुए है।
५) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा निरहिर्त कर दिया जाता है।

संसद ने जन प्रतिनिधितव अधिनियम (१९५१) मे निम्नलिखित अन्य निरहर्ताए निर्धारित की है-
१) वह चुनावी अपराध या चुनाव मे भ्रष्ट आचरण के तहत दोषी करार न दिया गया हो।
२) उसे किसी अपराध मे दो वर्ष या उससे अधिक की सजा न हुई हो। परंतु प्रतिबन्धात्मक निषेध विधि के अंतर्गत किसी व्यक्ति का बंदीकरण निर्हेता नहीं है।
३) वह निर्धारित समय के अंदर चुनावी खर्च का ब्यूआरा देने मे असफल न रहा हो।
४) उसे सरकारी ठेका, काम या सेवाओ मे कोई दिलचस्पी न हो।
५) वह निगम मे लाभ के पद निदेशक या प्रबंध निदेशक के पद पर न हो, जिसमे सरकार का २५ प्रतिशत हिस्सा हो।
६) उसे भ्रष्टाचार या निष्ठहीन होने के कारण सरकारी सेवाओ से बर्खास्त न किया गया हो।
७) उसे विभिन्न समूहो मे शत्रुता बढ़ाने या रिश्वत खोरी के लिए दंडित न किया गया हो।
८) उसे इनमे छुआछूत ,दहेज व सती जैसे सामाजिक का प्रसार और संलिप्त न पाया गया हो।

किसी सदस्य मे उपरोक्त निर्हारताए सम्बंधी प्रश्न प्र राष्ट्रपति का फैसला अंतिम होगा यद्यपि,राष्ट्रपति को निर्वाचन आयोग से राय लेकर उसी के तहत कार्य करना चाहिए।

दल-बदल के आधार पर निर्हारताए-

संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को संसद की सदस्यता के निर्हर तराया जा सकता है, अगर उसे दसवी अनुसूची के उपबंधो के दल बदल विधि के निम्नलिखित उपबंधो के तहत निर्हर करार दिया जा सकता है-

१) अगर वह स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल को त्याग करता है,जिस दल के टिकट पर उसे चुना गया हो।
२) अगर वह अपने राजनीतिक दल द्वारा दिए निर्देशो के विरुध सदन मे मतदान करता है या नहीं करता है।
३) अगर निर्दलीय चुना गया सदस्य किसी राजनीतिक दल मे शामिल हो जाता है।
४) अगर कोई नामित या नाम निर्देशित सदस्य छह महीने के बाद किसी राजनीतिक दल मे शामिल होता है।

दसवी अनुसूची के तहत निःरता के सवालो का निपटारा राज्यसभा मे सभापति व लोकसभा मे अद्यक्ष करता है ( न की भारत का राष्ट्रपति) १९९२ मे उच्छ्तम न्यायालय ने निर्णय दिया की सभापति/अद्यक्ष के निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

Part 1- Part 2- Part 3- Part 4-




राष्ट्राच्या भविष्याचा वेध - माजलेले नेतृत्व, घाबरट आणि स्वार्थी नागरिक - पुढे काय?

राष्ट्राच्या भविष्याचा वेध - माजलेले नेतृत्व, घाबरट आणि स्वार्थी नागरिक - पुढे काय?

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या राष्ट्रातच काय पण कुठे ही या पूर्वी जगण्याचा फार असा आमचा अनुभव नाही. विचारलच तर अभ्यास ही फार नाही. पण तरीही जितक कळलंय त्यावरून अगदीच भितीदायक अशा भविष्याकडे वाटचाल होतीये असे वाटते. अनेकदा 'आशा' लागते हे सगळे सुधारेल म्हणून. पण बऱ्याच वेळेस नुसता भ्रमनिरस होतो.

मानवाच्या सुसंकृत होण्याकडचा प्रवासच वेगळ्या वाटेला लागलाय अस वाटायला लागत. कदाचित देव ही संकल्पना याच प्रवासात माणसाला आधार म्हणून सोबत करण्यासाठी पूर्वजांनी शोधली असावी. आणि आपण बावळटांनी सगळा प्रवासच तिच्या नावे  लिहून आजचा दिवस कसा 'मजेत' जाईल यावर फक्त लक्ष केंद्रित केलेय.
अगदी गेल्या ५ वर्षातल्याच भारतात घडलेल्या घटना नीट बघितल्यास आपला प्रवास अंधाकाराकडे आहे हे निश्चित होते. राजकारण्यांनी केलेला भ्रष्टाचार लोक जसे जसे जास्त शिकतील तसा तसा खरेतर कमीच व्हायला हवा. पण घडतंय काय तर उलटे. दिवसेन दिवस भ्रष्टाचाराचे आकडे वाढतेच. करातला तितका पैसा खाल्ला म्हणून तर राग आहेच पण, त्याही उपर लोकांबद्दलची आस्था आणि त्यांच्या प्रश्नाबद्दलची संवेदनशीलता नष्ट होण्याच्या मार्गाला लागलीये याचा फार राग येतो. करोडोंच्या देशात मोजकेच शहाणे उरलेत की  काय? शेंबूड पुसणारे पोरही आम्हाला आमचे नेतृत्व वाटायला लागते तेंव्हा सक्रिय राजकारणात तळमळीने प्रामाणिकपणे ज्यांनी XX घासलीये त्यांच्या उदेश्यावर ही संशय घ्यावासा वाटतोय. मोजके सोडले तर दादा, भाऊ, बंटी असल्या चिरकुटा शिवाय कुणाचे राजकारण नाही. इतके सारे सुशिक्षित आपल्याकडे आहेत, तेथे ही जर असलेच शेंबडे निवडून येणार असतील तर तुमच्या शाळेच्या सरर्टिफिकेटवर नक्कीच संशय  येईल. पण सगळ्यांच्याच सरर्टिफिकेटवर कसा संशय घ्यावा ? म्हणजे शिक्षण पद्धतीतच असे नागरिक तयार करण्याचे शिक्षण दिले जात असावे. गुलामांच्या फ्याकट्रयाच.

मागे एका शेतकरी संघटनेच्या नेत्यांनी या सगळ्या परिस्थितीवर हताश होवून बोलत असतांना एक अनुभव सांगितला. अतिशय लागणारा आणि मार्मिक असाच -
तर हे नेते असेच एक मोठ्या शहरातून गावाकडे ट्रेन ने निघाले होते. गाडी स्टेशनवर आल्यावर यांनी खिडकीतून एका गृहस्थाला जागा ठेवायला सांगितली. यांच्या खिशाला शेतकरी संघटनेचा बिल्ला बघून खिडकीतूनच गृहस्त म्हणाले 'अहो आजकाल तुमची शेतकरी संघटना फारच थंड झाली आहे.' आधी आत तर येवू द्या अस म्हणून शेतकरी नेते आत गेले आणि त्यांच्या समोर बसले आणि त्या गृहस्ताला त्यांचा परिचय विचारला. तर गृहस्तांनी आपण निवृत्त प्राध्यापक असून काहीतरी कामानिमित्य इकडे आलो होतो असा परिचय करून दिला. तेंव्हा आमचे हे नेते म्हंटले, तर आता सांगा तुम्हाला आमच्या शेतकरी संघटनेची थंड हवा कधी आणि कोठे लागली ते. गृहस्त शांत. पुढे नेते बोलते झाले, तर तुम्ही सगळे म्हणजे तुम्ही सगळे शिकले लोक 'खोजे' झालेले आहात. तेंव्हा गृहस्तांनी 'खोजे' म्हणजे काय असे विचारताच नेते हसून म्हंटले, आता निवृत्त प्राध्यापक तुम्ही, तुम्हाला त्याचा अर्थ चांगला माहीत असावा. थोडेशे ओशाळले निवृत्त प्राध्यापक शांत बसलेले पाहून यांनीच त्याचा अर्थ स्पष्ट केला. तर तो असा की इस्लामी राजवटीत बादशाह लोक त्यांच्या संख्येने खूप असलेल्या बायकांच्या सेवेसाठी आणि संरक्षणासाठी काही पुरुष नेमत. पण ते पुरुष नपुंसक केलेले असत. तर अशे हे 'नपुंसक केलेले संरक्षक, सेवक किंवा रखवालदार म्हणजे खोजे' अशी व्याख्या सांगताच प्राध्यापक साहेब ते आम्ही कसे? असा प्रश्नकरते झाले. नेत्यांनी अगदीच स्पष्ट करतांना म्हंटले, राजकारण्यांपेक्षा शिकलेले? तुम्ही! हुशार? तुम्ही! संखेने जास्त? तुम्ही! तरीही व्यवस्थेला तुम्ही म्हणजे फक्त राखणदार! ती आहे तशीच ठेवणे हे आपले परम कर्तव्य समजून तुम्ही तिला फक्त आणि फक्त राजकारण्यांची बनवून ठेवली. पुढे नक्कीच काहीच चर्चा झाली नसणार.

तर या नेत्यांनी आमचेही डोळे चांगलेच उघडले. सगळे अव्यवस्थेचे खापर इथच्या मजूर, गरीब आणि शेतकरी वर्गावर फोडून फक्त लिखित आणि तोंडी हिरोगिरी करणारे आमच्यासारखे शिकलेले या पापाशी आपले देणे घेणे नाही अस म्हणून बसलेत. अशात  कधी कधी मेणबत्त्या घेवून आणि काळ्या रिबिनी लावून निषेध व्यक्त करतात. बर त्याचा खरच काही उपयोग झाला असता तर नक्कीच स्तुती केली असती. पण ज्यांना कोर्टाच्या निर्णयाचाही फरक पडत नाही त्यांना तुमच्या निषेध-निषेध-निषेध चा काय फरक पडणार? आंदोलने आणि चाळवळीही जागृतीच्या पलीकडे काहीच करू शकत नाहीत इतक्या नपुंसक झाल्यात. कमीत कमी अशातल्या या काही अनुभवावरून तरी. झालेली जागृती पुढे क्षणात मिटवून टाकायला क्रिकेट, करीना किंवा मग जालीम अशे उपाय म्हणजे  तुमचे 'शायनिंग इंडिया' किंवा मग 'डायरेक्ट टू अक्काउंट' आहेच. रोज रोज होणाऱ्या बेगडी आणि चमकू चळवळीनी पोटापासून ओरडनार्यांचे आवाज ऐकूच येत नाहीत. मग खरा प्रश्न्न बाजूला राहून 'पंतप्रधान बाहेर येवून का नाही बोलला' हाच मुख्य मुद्दा होतो. मग पंतप्रधानही  फक्त  'मुख्यच' मुद्याचे उत्तर देतात. सगळे समाधानी. चार दिवस जागृतीचे. बाकीचे सगळे स्त्री भ्रूणहत्येचे, विनयभंगाचे, बलात्काराचे, समाज सेवकांच्या बदडण्याचे, शेतकऱ्यांच्या आत्महत्येचे, घसरणाऱ्या रुपयाचे आणि हे सगळ तितकेही गंभीर वाटू नये म्हणून सतत टी. व्ही. वर येणाऱ्या मनोरंजनाच्या कार्यक्रमाचे, जिंकलेल्या क्रिकेटचे, दिलेल्या प्याकेजचे किंवा नागरिक साला भाकरीत गुंतून पडवा म्हणूनच कदाचित वाढलेल्या महागाईचे आणि व्याज दाराचे.

आपले प्रतिनिधी कसे आहेत यावरून आपण किती चांगले आणि आपण कुठे जातोय याचाच अंदाज येत असतो. देश काही मोजक्यांनाच चालवण्यासाठी आउट-सोर्स केलाय अस वागून या वेळी तरी चालणार नाही. येणाऱ्या इलेक्शनला सोमे-गोमे पुन्हा निवडून आले तर आपल्या मुली घराबाहेर पडू देवू नका, आपल्या पोरांना गुलाम म्हणून जगण्याची शिकवण द्या, घर बीर न घेता कुण्या तरी नेत्याने आणि उद्योजकाने  बांधलेल्या सदनिकांमध्ये आयुष्यभरासाठी किरायाने राहण्यासाठी समान बांधून ठेवा, मानेला ताठ ठेवण्यासाठी जसे बेल्ट मिळतात तसेच मान कायम खाली ठेवण्यासाठी बेल्ट आताच स्वस्तात मिळाले तर ते ही  घेवून ठेवा कारण येणाऱ्या काही वर्षात त्याचीही गरज भासेल. आणि नकोय अस भविष्य तर डोक्याने मतदान कुण्याही पक्षाला करा पण प्रामाणिक आणि स्वाभिमानी माणसांनाच करा.

पण फक्त त्याने चालणार नाही तर निवडणुकी पूर्वीच तुमचा कल दाखवून द्या. म्हणजे तिकिटे सुद्धा अशाच लोकांना मिळतील. इतका मोठा बदल सोप्पा नसतोच, पण तरी करायचा निश्चय आम्ही तरुणांनी मुख्यमंत्री.कॉम वर केलाय. आमच्या या प्रवासाचा भाग व्हा, सामील व्हा. आपण सगळ्यांनी सोबत प्रयत्न केले तर किती नक्कीच बदल होईल. येथे  (https://www.facebook.com/swaraj.manepatil8) ला काननेक्ट व्हा म्हणजे संपर्कात राहता येईल. डोक्यातल्या विचारांना फक्त डोक्यात ठेवले तर पश्चातापाशिवाय दुसरे काहीच करता येणार नाही. 

जय हिंद. !
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एक वेळ जेवण करून MPSC ची तयारी..!

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आम्हाला बदलेला देश बघायचा आहे..!!

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या देशात स्वातंत्र्य आहे, हे एक नेहमीचंच नियमित वाक्य. शुभ्र कपड्यातील गुंडांनी ग्रासलेला हा देश खऱ्या स्वातंत्र्या साठी अजून ही विव्हळत आहे. लहानपणी वाटायचं जग बदलण अगदी सोप्प आहे; १५ ऑगस्ट आणि २६ जानेवारी ला शाळेत मिरवणूक निघायची आम्ही त्यात उत्साहाने सामील व्हायचो, उरामध्ये प्रचंड स्वाभिमान घेऊन आगदी बेंबीच्या देठा पासून "भारत माता कि जय" चे नारे द्यायचो. लहानपणी बऱ्याच खोड्या देखील करायचो पण मनामध्ये नेहमी एक भीती असायची की चूक केली तर शिक्षा होईल. शिक्षकांची, पालकांची, वडिलधाऱ्यांची एक भीती असायची, म्हणून वाटायच खऱ्या देशात देखील असंच सरकारला आणि न्यायाला भीत असतील लोक. पण जसा जसा मोठा होत गेलो तसं तसा खरा भारत दिसायला लागला. इथे लोक घाबरतात पण न्यायाला नाही तर जे लोक आपल्या खिशामध्ये न्याय घेऊन फिरतात त्यांना. दिवसा ढवळ्या या देशाला लुटणाऱ्या लुटारूंना, आणि या भारत मातेच्या अब्रूचे धिंडवडे उडवणाऱ्या सैतानांना. एखादा प्रमाणपत्र काढायचं झाल तर जिथे २ दिवस लागायचे तिथे ७ दिवस लागतात कारण काय तर कामाचा बोजा, आणि ५० रुपये पुढे केले तर २ दिवसाचे काम २ तासामध्ये होते. कारण काय तर पैसा. पुढे कळायला लागला हा पैसा ह्या लोकांच्या घरात जात नाही तर दारूच्या दुकानात जातो, यांच्या मुलांच्या डोनेशन मध्ये जातो, ५०-५० रुपयांचा भ्रष्टाचार वेगळाच, पण १००-१०० करोड रुपयांचा घोटाळा ही होतो हे लक्षात यायला लागल. आजवर विकासाच्या नावावर करोडो रुपयांची अगदी राख रांगोळी झाली, पण विकासाचा लवलेशही अजून पर्यंत आमच्या करोडो भारतीयांच्या नशिबाला आला नाही.
निवडणुका म्हणजे आमच्या देशात राष्ट्रीय सनासारख्या झाल्या आहेत, दर वर्षांनी, महिन्यांनी कसली न कसली निवडणूक घ्यायची, लोकांच्या कल्याणाची भाषा करायची, आम्ही ही ती ऐकायची आणि टाळ्या वाजवून पुन्हा ये रे माझ्या मागल्या! तेच ते चालू आहे, १ नाही २ नाही गेली ६० वर्षे आम्ही तेच ते बघतो आहोत. स्वतंत्र भारतात तीन पिढ्या बदलल्या पण आमच्या समस्या त्याच होत्या आणि आज ही त्याच आहेत; किंबहुना त्या समस्यांनी आता महाकाय स्वरूप घेतलं आहे. देश तर स्वतंत्र झाला, पण आम्ही अजून ही गुलामच राहिलो. स्वतःच्या स्वातंत्र्य साठी स्वतःलाच लढावे लागते, पण लढणे म्हणजे काय हेच आता आम्ही विसरलो आहोत.

कुठे तरी एक छान वाक्य ऐकलय, आपलीच गाडी आपलीच माडी आणि आपल्याच बायकोची गोल गोल साडी, फ़क़्त एवढ्या पुरतेच आम्ही मर्यादित राहिलो आहोत. रोज अन्याय होतो म्हणून प्रत्येक जन रडत असतो, झोपडीत राहणाऱ्या सामान्य माणसापासून ते मोठ मोठ्या उद्योगपतीन पर्यंत सर्व च्या सर्व फ़क़्त आणि फ़क़्त रडत असतात, पण कधी ही कुणी पेटून उठत नाही, कधी कुणाची हाक ऐकू आलीच तर आम्ही साधा प्रतिसादसुद्धा देत नाहीत. स्वतंत्र भारतात आम्ही गुलाम आहोत अज्ञानाचे, भ्रष्टाचारचे, बेरोजगारीचे, निरक्षरतेचे, धर्मांधतेचे, आणि जाती पतीने ग्रासलेल्या घाणेरड्या मानसिकतेचे.

सुवर्ण अक्षरात लिहून ठेवावा इतका तेजस्वी आणि ओजस्वी इतिहास असणारे आम्ही एवढे निष्प्राण, निस्तेज कसे? कधी ऐकू येणार ती आरोळी, भारत माता की म्हंटल की कधी सबंध देश एका आवाजात "जय" चा उदघोष करणार? प्रत्येकाने आपल्या लहानपणी पाहिलेले भारत देशाचे स्वप्न कधी साकार होणार? ज्या महापुरुषांची भाषणे आम्ही द्यायचो, ऐकायचो कधी त्यांच्या विचारांना आम्ही आमच्या जीवनात खरं स्थान देणार आहोत? कित्येक स्वातंत्र्य दिन आले, येतील आणि जातील देखील पण जो बदल सहज घडेल असे कधी वाटायचे त्या बदलाची सुरुवात कधी होणार?

निराशेने ग्रासलेल्या या देशाला खऱ्या स्वातंत्र्याचा सूर्य दाखवायचा असेल तर एक सशक्त आणि ठणठणीत विचारच हे काम साध्य करू शकतो. नशिबाने येणारी नवी पिढी विचार करणारी आहे, जी पिढी स्वतःच्या उत्कर्षासाठी दिवस रात्र मेहनत घेऊन आपला आयुष्य उभारतात त्या पिढी कडून हा देश ही घडण्याची देखील अपेक्षा आहे. आपल्या सारखे विचार करणारे खूप आहेत, बदलाची आणि खऱ्या स्वातंत्र्याची प्रचंड भूक लागलेले खूपजन आहेत, म्हणूनच एक नवी आशा निर्माण झालीये- 'आम्हाला बदलेला देश बघायचा आहे'. जे स्वप्न आम्ही लहान पाणी बघायचो त्या निर्मळ स्वप्नासाठी आपल्या प्रत्येकाला आपला सहभाग द्यावाच लागेल. कुठलही देश एका रात्री मध्ये उभा राहत नाही, त्या साठी वर्षानुवर्षे कठोर मेहनत घ्यावी लागले, आमच्या नशिबाने आमच्या महापुरुषांनी ही मेहनत घेतली आहे गरज आहे फ़क़्त त्यांच्या विचारांची कास धरून नवे पाऊल उचलण्याची, हे नवे पाऊल उचलण्याची प्रतिज्ञा आजच्या या स्वातंत्र्य दिनी घेऊन, हातामध्ये हात घेऊन सबंध देश घेऊन पुढे जाऊया. जमेल तेथे- जमेल त्या प्रकारे- जमेल ते प्रयत्न राष्ट्रनिर्मिती साठी करूयात. प्रयत्न छोटा आहे किंवा मोठा आहे न बघता प्रयत्न कण्यावर भर देवूयात. रोजच तो प्रयत्न होत असेल तर ठीक आणि नसेल होत तर आठवण येईल तेंवा तो करत राहुयात. पर्फेक्षनिष्टांच्या टीकांना दुर्लक्षित करून जमेल त्या प्रमाणात राष्ट्रकार्यात सहभाग घेऊयात. संघटना झालीच तर खूप छान, पण संघटना नाही म्हणून थांबायला नको, सुरवात करूयात, इतरलोक काही करत असतील तर त्यांना मदत करूयात. कमीत कमी अन्यायाची जाणीव अज्ञानात खिचपत पडलेल्या समाजाला तर कुणीही करून देऊ शकतो. नाहीच लढता आला तर अन्याय होतोय हे तरी मान्य करा.

महाराष्ट्रात, छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या विचारांनी पेरलेली आपली मस्तके नापीक होवूच शकत नाहीत कारण त्यांना वेळोवेळी फुले, टिळक, आंबेडकर यांनी विचारांचा खात घातलाय. तेव्हा स्वाभिमानाने, निधड्या छातीने पसरलेल्या अंधाकाराला दूर करण्यासाठी हवे ते प्रयत्न करा.

प्रत्येक तळमळ असलेल्या भारतीय युवकांना आवाहन आहे. हे पाऊल तुम्हीच उचलण्याची गरज आहे. अथक प्रयत्नाने आणि हजारोंचे रक्त सांडून आपला देश स्वतंत्र झाला, त्या सर्वांच्या सांडलेल्या रक्ताची शपथ आहे तुम्हाला, जमेल तिथे जमेल त्या प्रकारे एक खरा स्वतंत्र भारत निर्माण करण्यासाठी तुम्ही हे पाऊल उचला.
तुम्हाला साथ आहे आमची, आणि आमच्या सारख्या हजारोंची.

जय हिंद ! 

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महाराष्ट्रातील राजकारण आणि स्त्रिया !

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 भ्रष्टाचार आणि गुन्हेगारीची बजबजपुरी अशी राज्याची प्रतिमा. जोडीला दारिद्र्य अन् प्रचंड सामाजिक विषमता. बायकांच्या खुलेआम शोषणाचा इतिहास. याला कंटाळून राज्य सोडून जगणं शोधायला बाहेर पडलेल्या झुंडी. या पार्श्वभूमीवर बिहारमध्ये हे घडलं.

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दोन बातम्या.

गेल्या पंधरा दिवसातल्या.

पहिली बातमी - महाराष्ट्रात 'आदर्श' खांदेपालट होऊन नवं मंत्रिमंडळ सत्तेत आलं. त्यात दोन महिला मंत्री. त्यातल्या वर्षा गायकवाड कॅबिनेट मंत्री अन् दुसऱ्या फौजिया खान राज्यमंत्री. राज्यातल्या साडेपाच कोटी महिलांचं प्रतिनिधित्व मंत्रिमंडळात करणार फक्त दोघीजणी. एकूण ४० मंत्र्यांमध्ये दोघी म्हणजे सत्तेतला वाटा ५ टक्के. हे अनपेक्षित अजिबात नव्हतं. धक्कादायक तर त्याहूनही नव्हतं. राज्यात निवडून आलेल्या इनमिन १८ महिला आमदारांपैकी दोघी मंत्री झाल्या. दोन पक्षांचं सरकार. त्यात प्रत्येक पक्षाची एक. एकीलाही घेतलं नसतं तर उगाच चचेर्ला खाद्य. त्यापेक्षा मंत्रिपदं देऊन टाकू या असा शहाणपणाचा निर्णय यामागे होता. याहून अधिक काही नाही.

दुसरी बातमी- बिहारमधली. नुकत्याच तिथं विधानसभेच्या निवडणुका झाल्या. नितीशकुमार यांचं सरकार पुन्हा सत्तेत आलं. या विधानसभेत बिहारमधून एकूण ३४ महिला निवडून आल्या. गेल्या ४८ वर्षांच्या राजकारणात हे पहिल्यांदाच घडलं. ज्या राज्यात काल परवापर्यंत बायका-मुलींचे सौदे व्हायचे, बंदुकीच्या धाकावर हवी ती बाई उचलून नेली, तर हाक ना बोंब, एवढं असुरक्षित वातावरण होतं त्या बिहारमध्ये हे घडलं. त्यात आणखी गंमत म्हणजे निवडणुकीसाठी मतदान करणाऱ्यांमध्येही ५४ टक्के महिला होत्या! 'जेडीयू'नं तिथं २४ महिलांना उमेदवारी दिली होती, पैकी २३ निवडून आल्या. म्हणजे 'पडेल' जागांवर बायकांना उमेदवाऱ्या देऊन केलेली ही धूळफेक नव्हती.

दोन्ही बातम्या विचार करायला लावणाऱ्या. एका राज्याला महिला चळवळींची मोठी पार्श्वभूमी. थेट सावित्रीबाई फुल्यांपर्यंत मागे जाता येईल एवढी. बायकांच्या शिक्षणाचं प्रमाण मोठं. सुबत्ता अधिक. राज्यात सातत्याने पुरोगामी म्हणवणारे पक्ष सत्तेत. दुसरीकडे भ्रष्टाचार आणि गुन्हेगारीची बजबजपुरी अशी राज्याची प्रतिमा. जोडीला दारिद्य अन् प्रचंड सामाजिक विषमता. बायकांच्या खुलेआम शोषणाचा इतिहास. याला कंटाळून राज्य सोडून जगणं शोधायला बाहेर पडलेल्या झुंडी. या पार्श्वभूमीवर बिहारमध्ये हे घडलं. त्यासाठी पाच वर्षं पुरली. तिथे बायकांच्या राजकीय सहभागात एकदम क्रांतिकारी बदल घडलाय असं अजिबात नाही, पण गुन्हेगारी, दारिद्य, भ्रष्टाचार, विषमता यांचं प्रतीक म्हणून ज्या राज्याचं नाव हिणवल्या भावनेनं घेतलं जायचं, तिथं हे घडलंय! पाच वर्षांपूवीर् राजधानी पाटणामध्ये संध्याकाळी सात साडेसात वाजता रस्ते सामसूम व्हायचे. पुरुष रस्त्यावर फिरकायची हिम्मत करायचे नाहीत, तिथं आज संध्याकाळी कॉलेजातल्या तरुण मुली स्कूटरवर बिनधास्त हिंडू शकतात, इतका मोठा बदल पाच वर्षांत घडला...राजकीय इच्छाशक्तीमुळे काय घडू शकतं याचं हे उदाहरण. राजकीय पक्षांनी मनावर घेतलं तर महिलांचा सत्तेतला सहभाग हा अशक्य नाही, हे सिद्ध करणारी बिहारची बातमी म्हणूनच आश्वासक.

महाराष्ट्रातल्याच नव्हे तर देशभरातल्या बायकांच्या राजकीय सहभागाबद्दल थोड्याफार फरकाने सारखंच चित्र. तेच ते मुद्दे. शिळ्या कढीला ऊतआणावा तशा चर्चा. पण बदल काहीच नाहीत. १९७३ मध्ये स्थानिक स्वराज्य संस्थांमध्ये बायकांना ३३ टक्के आरक्षण मिळालं, तेव्हा एका नव्या युगाची सुरुवात झाल्याचं आश्वासक चित्र निर्माण झालं होतं. टप्प्याटप्प्याने विधानसभा आणि लोकसभेतही आरक्षण येईल, खालच्या स्तरांवर राजकीयदृष्ट्या साक्षर झालेल्या बायका सक्षम होऊन समर्थपणे वरच्या स्तरावरचं राजकारण हाताळतील, अशी अपेक्षा होती. सतरा वर्षं उलटून गेल्यावरही हे घडलं मात्र नाही. स्थानिक स्वराज्य संस्थांमध्ये गाव आणि तालुका पातळीवरच्या सगळ्या अडचणींना पुरून उरलेल्या बायका राजकारण आणि विकासाची सांगड घालत अत्यंत उत्तम काम करताहेत. त्यांच्या राजकीय महत्त्वाकांक्षा वाढल्यात. आता त्यांना विधानसभेत, लोकसभेत जायचंय. पण त्यांच्या वाटा जिल्हा परिषद, महापालिकेत पोहचवून बंद झाल्यात. 'हवं तर पन्नास टक्के आरक्षण घ्या, पण खालच्या स्तरांवर. तिथं जिरवा तुमच्यातल्या नेतृत्त्वाची हौस अन् राजकारणाची रग. जिथं धोरणं ठरतात, कायदे बनवले जातात...तिथं पोहोचायचा विचार मात्र करू नका, आम्ही आहोत ना 'समर्थ' ही पुरुषी मनोवृत्ती सगळ्या पक्षांमध्ये सारखी. सगळ्या प्रमुख राजकीय पक्षांत महिला सेल वगैरे... या पक्षांच्या महिला सेलच्या राष्ट्रीय अध्यक्षपदी कोण आहे, हे किती जणांना ठाऊक असेल? यावरून या सेलचं महत्त्व ध्यानात यावं. घरातल्या शोकेसमध्ये शोभेच्या वस्तू असाव्यात तसे हे सेल. अधिवेशनात एका रंगाच्या साड्या नेसून फोटो काढण्यापुरते. कोणत्याही पक्षाच्या धोरणं ठरवणाऱ्या समितीत बायका किती हे तपासून पाहावं. अगदी सोनिया, मायावती, ममता, जयललितांच्या पक्षांची हीच कथा. जिथं पक्षसंघटनेतच जबाबदाऱ्या आणि अधिकारांचं वाटप समान नाही, तिथं थेट सत्तेतल्या सहभागाविषयी बोलणं दूरची गोष्ट.

तिकीट देताना निवडून येण्याची पात्रता हा मुख्य निकष. निवडणुकांच्या राजकारणात बदललेल्या निकषांनुसार पैसा असायला हवा आणि बाहुबल. कार्यकर्ता...नेता...सत्ता हा प्रवास कधीच कालबाह्य झालाय. थैल्या घेऊन येणारी माणसं सत्तेची ऊब चाखू लागलीत. असं असताना बायकांचा टिकाव कसा लागणार, हा युक्तिवाद केला जातो. बायकांना संधी देऊन हे चित्र बदलता येणं शक्य आहे, हा विचार कुठेही नाही. किंबहुना ही सत्तेची गणितं त्यांच्या कुवतीपलीकडची हा समज कायम. समाजात वेगळ्या वाटेनं जाणाऱ्या बायकांचं कौतुक होतं, त्यांना सपोर्ट मिळतो. पण राजकारणातल्या बायकांबद्दल जाम अढी. इंदिरा गांधी वगैरे ग्रेट, पण त्या दुसऱ्यांच्या घरात जन्मल्या तर बरं! निवडून गेलेल्या, सत्तेतल्या बायकांचं प्रगतीपुस्तक बघा, असाही खवचट प्रश्ान् येतो. कशी दिसणार ती? त्यांच्याकडे दिल्या जाणाऱ्या खात्यांपासूनच पंक्तिप्रपंचाला सुरुवात. पक्षाच्या पातळीवर सभागृहात बोलण्याची संधी किती बायकांना दिली जाते? बोलणाऱ्या बुजुर्गांची नावं आधीच ठरलेली. नव्यांना, त्यातही बायकांना जेमतेम संधी. कधीतरी किरकोळ प्रश्ान् नाहीतर, श्रद्धांजली वाहताना त्या तोंड उघडणार. एरवी 'लीला उभी राहिली आम्ही नाही पाहिली' अशी अवस्था. हळू आवाजात बोलणाऱ्या मंत्रीणबाईंचा हुयोर् उडवून त्यांची उत्तरंही ऐकून घेतली जात नाहीत, तिथं त्यांचा प्रभाव कसा पडावा?

खुल्या स्पधेर्त उतरून एखादी बाई लागलीच डोईजड व्हायला की हुकमी शस्त्र परजायचं, तिच्या चारित्र्याचा मुद्दा चघळायला सुरुवात करायची! एरवी सगळ्याच क्षेत्रात हमखास लागू पडणारं हे हत्यार राजकारणातल्या बायकांसाठी आणखी सोपं. इथे पुढे जायचं तर गट, गॉडफादर हे सांभाळणं आलं. दौरे, कार्यक्रम आले. त्यामुळे पावलोपावली 'पुरावे' ! किती खालच्या पातळीवर जाऊन आपल्याकडे ते वापरलं जातं याचंही उत्तम उदाहरण याच महिन्यातलं. माजी सरसंघचालक के. सुदर्शन यांनी सोनिया गांधीबद्दल उधळलेली मुक्ताफळं वाचून, कुठल्याही संवेदना शाबूत असलेल्या माणसानं लाजेनं मान खाली घातली असेल. सोनियांच्या औरस असण्यापासून त्यांनी राजीव गांधींना मारल्यापर्यंतचे किळसवाणे आरोप. एका बलाढ्य पक्षाच्या अध्यक्ष महिलेला हे सहन करावं लागतं, तर ग्रामपंचायतीची निवडणूक लढवणाऱ्या एखाद्या सासुरवाशिणीचं काय होत असेल? चारित्र्य ही बाईनं जपायची गोष्ट. पुरुषांसाठी ते फारच ऐच्छिक. राजकारणी पुरुषांबाबत तर नियम अगदीच शिथील!

या क्षेत्रातल्या लैंगिक शोषणाचे किस्से म्हणजे गप्पा हमखास रंगवणारा विषय. महिला राजसत्ताच्या भीम रास्करांशी बोलताना ते म्हणाले की, लैंगिक शोषणविरोधी कायद्यात आस्थापनांपासून शाळा, हॉस्पिटलांपर्यंत विशाखा समित्या नेमणं सक्तीचं केलंय, मग हे पक्षसंघटनांसाठी का नाही? आहे ना मुद्द्याची गोष्ट?

तर हे असं आहे. आहे जुनंच. काही बदलत नाही, किंबहुना बदलू द्यायचं नाही, याचं दु:खं आहे. स्त्री चळवळी थंडावल्याचा मोठा फटका बायकांच्या राजकीय प्रवासाला बसलाय. त्यामुळे ३३ टक्के आरक्षणाची वाट पाहणं हेच अपरिहार्यपणे उरतं. पण खरं सांगायचं तर त्याची वाट न पाहता राजकीय पक्षांनीच याची सुरुवात करणं गरजेचं आहे. राजकीयदृष्ट्या बायका सजग होताहेत. आरक्षण तर आज ना उद्या द्यावंच लागेल. पण जेव्हा ते मिळेल तेव्हा पक्षांकडे तेवढ्या जागांवर उभ्या करायला बायकांची नावंही नसतील ही शक्यता दाट. काळाची ही पावलं ज्यांनी ओळखली ते पक्ष तेव्हा राजकीय पटावर पुढे असतील. ज्यांना हे उमगूनही करायचं नाही त्यांच्या पायावरचा धोंडा अटळ आहे. तेव्हा जरा आपल्या राज्याचंही 'बिहार' करूया...
 

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छत्रपती संभाजी महाराज

छत्रपती संभाजी महाराज

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ज्यांच्या इतिहासाची पाने उलटताना अंगावर काटा उभा राहतो .. ज्या युग पुरुषाने स्थापन केलेले स्वराज्य आपल्या खांद्यावर ज्यांनी अगदी लीलया पेलले .. वाढवले .. इतिहासामधील एक अदभूत व्यक्तिमत्व, म्हणजे धर्मवीर छत्रपती संभाजी महाराज.
ज्या माणसाने वर्षे तलवारीवर मरण पेलून धरल, जो माणूस वादळा सारखा ह्या सह्याद्रीच्या दऱ्या खोर्यात घोंगावत राहिला.
इतिहासामध्ये ज्यांची नोंद एक हि लढाई हरलेला राजा म्हणून आहे. १२० लढाया एक हि हार नाही, एक हि तह नाही .. एकाच वेळी - दुष्मनांसोबत निकराची लढाई देणारा राजा म्हणून संभाजी राजांची नोंद इतिहासाने घेतली
शिवरायांनी आरमाराचे महत्व ओळखले होते, अतिशय दूरदर्शी पणाने त्यांनी सागरी शक्तीचे महत्व ओळखून आरमारही स्थापना केली होती, पुढे याच सागरी आरमाराला चौपटीने वाढवण्याचे काम संभाजी महाराजांनी केले. चंगेखान नावाच्या अरबी सरदार कडून नाव नवीन युद्ध नौका तयार करण्याचे तंत्र त्यांनी अवगत केले, मराठा आरमार अतिशय प्रबळ आणि प्रभावी बनवले.

टोपीकर, आदिलशहा, गोव्याचे पोर्तुगीज , निजामशाही, मुगल अशा अनेक शत्रूंची एकाच वेळी लढा देण्याचे काम त्यांनी केले. संभाजी राजे स्वतः रणांगणात उतरत असत. त्यांच्या साडे आठ वर्षाच्या कालावधी मध्ये एक हि बंड झाले नाही . तमाम मराठा समाज त्यांच्या मागे एक दिलाने उभा राहिला. शिवरायांनी स्थापन केलेले स्वराज्य चौपटीने वाढवण्याचे कार्य संभाजी राजांनी केले.

याच संभाजी ने वयाच्या चौदाव्या वर्षी एक संस्कृत मधून ग्रंथ लिहिला.. त्याचे नाव "सात-सतक" मानवी जीवन मुल्यांवर चर्चा करणारा हा महान ग्रंथ त्यांनी लिहिला .. बुध भूषणम् याच संभाजी ने लिहिला पण हे आम्हाला माहित नाही . भाषेचे प्रचंड प्रभुत्व असलेला हा राजा.

खुद्द औरंजेब दक्खन स्वारीवर आलेला असतांना त्या पापी औरंग्याला तब्बल ८ वर्षे सीमेवर हात चोळीत बसावयास भाग पाडीले, त्याला १ किल्ला सुध्दा जिंकता येऊ नये यातच संभाजी राजांचे राजकारणी, रणधुरंधर व्यक्तीमत्व सिध्द होते.केवळ एका जहागिरीपोटी नाराज झालेल्या गणोजी शिर्के नामक हरामजाद्याने स्वतःच्या बहिणीच्या कुंकुवाचा लिलाव मांडत मोगली सैन्याच्या तोंडात महाराजांच्या रुपाने आयता घास दिला.
स्वकीयांनीच विश्वास घात करून संभाजी महाराजांना औरांजेबाच्या तावडीत पकडून दिले , आणि आतिशय निर्दयपणे त्यांचा छळ करण्यात आला, त्यांचे डोळे काढले गेले, जीभ खेचून काढण्यार आली, नखे ओढून काढली, शरीरावर अमर्याद असे घाव केले .. त्यांचा मृत्यू येई पर्यंत औरंजेब त्यांच्यावर अत्याचार करताच राहिला, पण हा सह्याद्रीचा छावा जरा हि डगमगला नाही .. थोडा हि बिचकला नाही. खर तर जीवावर बेतल्यावर मानसे कसे स्वाभिमान शून्य होतात याची उदाहरणे बरीच आहेत पण संभाजी राजांनी स्वतः ला हा काळिमा लाऊन घेतला नाही, आपल्या शेवटच्या श्वास पर्यंत त्यांनी औरंजेबा पुढे आपली माण झुकवली नाही.

संभाजीराजांचा देह रंगजेबाच्या पाशवी वृत्तीला बळी पडला, पण त्याच बलिदानातून आणि हौतात्म्यातून मराठी राज्य बचावले आणि पुढे याच मराठी माती मधे औरंजेबाचा देह गाडला गेला हे मराठी मनाच्या बांधवांना कधीच विसरता येणार नाही.

याच संभाजीचा चारित्र्य हनन करण्याचे काम आमच्याच काही हरामखोर बखरकारांनी आणि इतिहास करांनी केले आहे, खरा संभाजी कधी लोकांसमोर येऊ दिलाच नाही. पण सूर्याचा प्रकाश किती काळ लपवून ठेवणार एक दिवस तरी आमच्या तमाम मराठी लोकांच्या डोक्या मध्ये हा उजेड पडल्याशिवाय राहणार नाही. सूर्य सारख्या तेजस्वी आणि ओजस्वी शिवाजी राजांचा राजांचा पुत्र म्हणजे सिंहाचा छावाच. आणि ज्या जिजाऊ ने शिवबा घडवला त्याच जीजौंच्या संस्कारात वाढलेला शंभू बाळ कसा काय रंगेल ठरवला जाऊ शकतो. छत्रपती शिवाजी महाराज हे या स्वराज्यचे संस्थापक तर याच महाराष्ट्राचा दुसरा छत्रपती म्हणजेच संभाजी महाराज हे या स्वराज्याचे संरक्षक म्हणून होते.

उगवणाऱ्या सूर्याचा प्रकाश जसा घरा घरा पर्यंत पोचतो त्याच प्रमाणे माझ्या या शूर शंभू राजांचा इतिहास आमच्या घरा घरा पर्यंत पोचावा असे आवाहन आपल्याला!