संसद..Parliament..
एक नजर हमारे पूरे संसद और उसकी सभी कार्यप्रणाली पर !
भाग २Part 1 - Part 2 - Part 3 - Part 4-
लोकसभा की चुनाव प्रणाली-
लोकसभा चुनाव प्रणाली से संबंधित पहलू इस प्रकार है-
प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र :
लोकसभा के लिये प्रत्यक्ष निर्वाचन करने के लिये सभी राज्यो को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजित किया गया है। इस सम्बंध मे संविधान ने दो उपबंध बनाये है।
1) लोकसभा मे सीटो का आवंटन प्रटेक राज्य को ऐसी रीति से किया जायेगा की स्थानो की सांख्या से उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात sabhi राज्यो के लिये यथा साध्य एक ही हो। यह उपबंध उन राज्यो पर लागू नहीं होता जिनकी लोकसंख्या ६० लाख से कम है।
२) प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे ऐसी रीति से विभाजित किया जायेगा की प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्रो को जनसंख्या का उसको आवंटित स्थानो की सांख्या से अनुपात समस्त राज्य मे यथा साध्य एक ही हो।
संक्षेप मे ,संविधान सुनिचित करता है की। (क) राज्यो के बीच (ख) उस राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो के बीच, प्रतिनिधित्व मे एकरुपता हो।
प्रत्येक जनगणना के पश्यत पुन: समायोजना -
हर एक जनगणना की समाप्ति होने पर पुन:समायोजना किया जाता है-
(अ) राज्यो को लोकसभा मे स्थानो का आबंटन और (ब) प्रत्येक राज्य का
प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजन। संसद को यह अधिकार है की वह इसके
लिये प्राधिकार और रीति का निर्धारण कर। इसी के तहत संसद ने १९५२,१९६२,१९७२
व २००२ मे परिसीमन आयोग अधिनियम लागू किए।
४२वे संशोधन संविधान अधिनियम १९७६ मे राज्यो को लोकसभा मे स्थानो का आवंटन
और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो मे विभाजन को वर्ष २०००
तक स्थिर कर दिया गया (१९७१ की जनगणना के आधार पर) इस प्रतिबंध को ८४ वे
संशोधन अधिनियम २००१ मे अगले २५ वर्षो (यानी वर्ष २०२६ तक) के लिये बढ़ा
दिया गया।
८४वे संविधान संशोधन अधिनियम,२००१ मे सरकार को यह शक्ति दी गई की वह १९९१
की जनगना की जनसंख्या के आधार पर राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रो का
पुन: समायोजन एव सयुक्तिकरण करती है। बाद मे ८७वे संशोधन संविधान अधिनियम
२००३ मे निर्वाचन क्षेत्र का परिसीमन २००१ की जनगणना के आधार पर। हालांकि
इस तरह के बदलाव राज्यो को लोकसभा मे स्थानो के आवंटन की सांख्या को बिना
बदले किए जाते है।
अनुसूचित जाती व जनजातियो के लिए सीटो का आरक्षण-
हालांकि संविधान मे किसी धर्म विशेष की प्रतिनिधि पद्धति का त्याग किया
है,लेकिन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर अनुसूचित जातियो व जनजातियो के लिए
लोकसभा मे सीटे आरक्षित की गयी है। प्रारंभ मे यह आरक्षण १० वर्षो के लिए
किया गया था (१९६० तक). इसके बाद इसे हर १० वर्ष बाद १० वर्ष तक के लिए
बढ़ा दिया गया। ७९वे संशोधन संविधान अधिनियम ,१९९९, मे इस आरक्षण को २०१०
तक के लिए बढ़ा दिया गया।
अनुसूचित जातियो व जनजातियो के लिए सीटे आरक्षित की गयी है लेकिन उनका
निर्वाचन,निर्वाचन क्षेत्र के सभी मतदाताओ द्वारा किया जाता है। अनुसूचित
जाती व जनजाति के सद्स्यो को सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से भी चुनाव लड़ने
का अधिकार है।
८४वे संशोधन अधिनियम,२००१ मे आरक्षित सीटो को १९९१ की जनगणना के आधार पर
पुन: नीयत किया गया (सामन्य सीटो की तरह) ८७वे संशोधन अधिनियम २००३ मे
आरक्षित सीटो को १९९१ की बजाए २००१ की जनगणना के आआधार पर पुन:नीयत किया
गया।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व न अपनाना-
हालांकि,संविधान मे राज्यसभा के लिए अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाई
गई लेकिन इस प्रणाली को लोकसभा मे नहीं अपनाया गया। इसकी जगह,प्रादेशिक
प्रतिनिधितव प्रणाली के जरिए लोकसभा के सद्स्यो को निर्वाचित करने का आधार
बनाया गया।
प्रादेशिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अंतर्गत, विधानमंडल का प्रत्येक सदस्य
एक भूभागीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे निर्वचन क्षेत्र कहा
जाता है।
प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक
प्रतिनिधि निर्वाचित होता है। अट: एसे निर्वाचन क्षेत्र को एकल सदस्य
निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है। इस पद्धति के तहत, जिस प्रत्याशी को अधिक मत
प्राप्त होते है, उसे विजयी घोषित किया जाता है। प्रतिनिधित्व पूरी चुनाव
प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व नहीं करता। दूसरे श्ब्दो मे, यह अल्पसंख्यांको
(छोटे समूहो) के प्रतिनिधित्व को सुरक्षित नहीं करता।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का उद्देश् क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व विभेद
को हटाना है। इस व्यवस्था के तहत लोगो के सभी वर्गो को अपनी सांख्या के
अनुसार प्रतिनिधित्व मिलता है। यहा तक की सबसे छोटी जनसंख्या वाले वर्ग को
भी विधानमंडल से इसका हिस्सा मिलता है।
आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दो प्रका है, जिसके नाम है- एकल हस्तांतरण मत
व्यवस्था एव सूची व्यवस्था। भारत मे राज्यसभा , राज्य विधान परिषदो,
राष्ट्रपति एव उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के लिये पहिले प्रकार की व्यवस्था
को अपनाया गया।
यद्यपि संविधान सभा के कुछ सद्स्यो ने लोकसभा सद्स्यो के चुनाव के लिए
आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की वकालत की थी लेकिन इसे संविधान मे दो
कारणो से नहीं अपनाया गया-
१। मतदाताओ के लिए मतदान प्रक्रिया (जो की जटिल है) समझने मे कठिनाई , क्योकि देश मे शैषनिक स्टार काम है।
२। बाहुदलीय व्यवस्था के कारण संसद की अस्थिरता।
इसके अलावा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के निम्नलिखित दोष है-
१) यह काफी खर्चीली व्यवस्था है।
२) यह उपचुनाव का कोई अवसर प्रदान नहीं करती।
३) यह मतदाताओ एव प्रतिनिधीयो के बीच आत्मीयता को काम करती है।
४) यह अल्पसंख्यांक एव सामूहिक हिटो को बढ़ावा देती है।
५) यह पार्टी व्यवस्था के महत्व को बढ़ावा देती है एव मतदाताओ के महतव को काम करती है।
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